Wednesday, August 19, 2020

चूल्हे के लिए आग लेने देने की परंपरा

हमारे गाँव में आज से लगभग 25-30 वर्ष पहले तक आग लेने देने की बहुत हीं अच्छी परंपरा थी | भोजन बनाने हेतु चूल्हे में लकड़ी, फसलों के अवशेष और गोबर के उपलों का उपयोग होता था | मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन उस समय दियासलाई जिसे माचिस भी कहते हैं को बहुत मूल्यवान वस्तु समझा जाता था | शायद महंगा रहा होगा | अक्सर घरों में होते नहीं थे या होते थे तो पूजा पाठ के लिए काम आते थे | लेकिन महिलाओं ने अपने चूल्हे जलाने के लिए एक रोचक परंपरा का विकास कर लिया था | आस पड़ोस के किसी भी घर में जहाँ चूल्हा जल रहा हो वहां से आग लेने का | सामान्यतः महिलाएं 4-5 उपले लेकर जाती थी और उनमे से 1-2 उपलों को आग वाले चूल्हे में डाल देती थी | थोड़ी देर में उपला आग पकड़ लेता था | फिर बाकी उपलों की सहायता से आग वाले उपले को अपने चूल्हे में डाल देती थी | इससे उनके घर का चूल्हा जल जाता था | कभी कभी माँ व्यस्त रहती तो मुझे आग लेने जाना पड़ता था | इस कार्य के दौरान जो प्रक्रिया होती थी वह बहुत हीं महत्वपूर्ण थी | आस पड़ोस की महिलाओं को आपस में मिलने जुलने और बातचीत करने का मौका मिल जाता था | एक दुसरे का हाल चाल पूछ लेती थी | थोड़ी बहु की शिकायत कर ली थोडा अपना दुखड़ा सुनाया | इससे उनका मन हल्का हो जाता था | जिनके यहाँ से आग लेते थे उनका अहसानमंद भी होते थे | इससे यह भी होता था की किसके घर क्या खाना बन रहा है यह आपस में सबको पता चल जाता था | कोई महिला आग नहीं लेने आई तो लोग पूछते थे सब ठीक तो है ? खाना बनाया की नहीं ? इत्यादि | किसी के घर खाना नहीं बना है तो पड़ोस से मदद मिल जाती थी | गरीबी ज्यादा थी और गाँव के लोगों से हालात छुपे नहीं थे | रोटी या चावल के साथ गाँव में उपजने वाली सब्जी ही घरों में बनती थी | अक्सर हमारे घर की सब्जी पड़ोस में चली जाती और पड़ोस से सब्जी हमारे घर आ जाती | हमारे बेटे को ये सब्जी पसंद है थोड़ी भेज दीजियेगा | एक दुसरे का ख्याल रखने का ये सामाजिक ताना बाना भी कमाल का था | एक अदद माचिस ने सब छीन लिया |