Sunday, May 30, 2021

सुलेखा की माँ

कहते हैं दुःख के बाद सुख आता है और सुख के बाद दुःख| जीवन की वास्तविकता में कभी कभी ये कहावतें गलत हो जाती है| जीवन कष्टों के अंतहीन रास्ते पर चलने लगता है जिसका अंत शायद मृत्यु पर हीं हो| जो कहते हैं की मृत्यु बहुत दुखदायी क्षण है उन्होंने शायद जिंदगी में असली दुःख देखे नहीं है| जिंदगी जब अर्थहीन, आशाविहीन, निरुदेश्य हो जाये तो मृत्यु से अधिक सुख और कौन दे सकता है| गाँव में हमारे पड़ोस में एक चाची रहती हैं रामा चाचा की पत्नी, बारावाली, सुलेखा की माँ| अपने वास्तविक नाम को कहीं खोकर अनेकों उपनाम लिए चाची आज अँधेरे में अपने घर के बाहर बैठी मिली| अँधेरा कई लोगों को अच्छा नहीं लगता लेकिन जिनका पूरा जीवन हीं अधेंरों में कहीं खो गया हो उनको अंधेरों से कैसा भय| सुलेखा की माँ सांवली और सामान्य शक्ल सूरत वाली औरत है| जैसा की गाँव में होता है कम उम्र में हीं उनकी शादी रामा चाचा के साथ हो गयी| शादी के कुछ वर्षों बाद सुलेखा का जन्म हुआ| मुझसे उम्र में बड़ी थी तो हम उन्हें सुलेखा दीदी कहते थे| नियति का खेल देखिये सुलेखा दीदी के बाएँ हाथ में पोलियो हो गया| अपनी अदम्य साहस से या कहें मज़बूरी में उन्होंने दायें हाथ से हीं सारा काम करना सीख लिया| कपड़े धोना, बर्तन, खाना बनाना, घर की साफ़ सफाई सारा काम वो एक हाथ से हीं कर लेती थी| कुछ वर्षों तक पढाई करने स्कूल भी गयी| सुलेखा दीदी की माँ और रामा चाचा में कोई विशेष कहा सुनी, लड़ाई झगड़ा हो ऐसा सुना नहीं कभी| एक दिन अचानक पता चला की रामा चाचा नयी शादी करके आये हैं| नयी वाली चाची को सब नयी चाची कहकर बुलाने लगे| यहीं से सुलेखा की माँ का जीवन नर्क बनने लगा| नयी चाची ने घर में जैसे जैसे अपनी जगह बनानी शुरू की सुलेखा की माँ घर से बाहर होती चली गयी| बजह-वेवजह दोनों में झगडे होने लगे| शायद सुलेखा की माँ अपना सबकुछ लुटता बिखरता देख नहीं पाती थी| नयी वाली चाची को अपना वर्चस्व जमाना था| दोनों में जमकर झगडे होने लगे| रामा चाचा कुछ बोलते तो नहीं थे लेकिन कभी कभी सुलेखा की माँ को पिटते जरुर थे| कुछ वर्षों के बाद सुलेखा दीदी की शादी हो गयी| वो अपने ससुराल चली गयी| अब सुलेखा की माँ अकेली पड़ने लगी| नयी चाची को एक लड़की और एक लड़का हुआ| अब वो सुलेखा की माँ को कुछ नहीं समझती| नए जोश और जूनून से लडती| सुलेखा की माँ धीरे धीरे हार मानने लगी| अब अति होने पर हीं लडती वरना अधिकांश समय चुप हीं रहती| हमारे समाज का नियम भी अजीब है| शक्तिशाली इंसानों के द्वारा बनाया गया नियम हमेशा शक्तिशाली लोगों के पक्ष में होता है| सभी लोग नयी चाची का साथ देने लगे| सुलेखा की माँ समाज के अन्दर लेकिन समाज से कटती चली गयी| अधिकांश समय अकेले और चुप चाप रहती| समाज के लोग उनसे बात करना अच्छा नहीं समझते| उनकी हर बात, उनका हर कार्य लोगों को बेकार और हास्यास्पद लगता| जैसे एक बार उन्होंने पूजा पाठ किया तो लोगों ने उनका नाम नमो नारायण रख दिया| समाज ने बार बार उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया| भारतीय कानून के अंतर्गत वह आज भी रामा चाचा की असली पत्नी हैं और उन्हें पत्नी के सारे अधिकार मिलने चाहिए| लेकिन विकास से कोसों दूर एक अनपढ़ महिला को देश के कानून से क्या मतलब| दो वक्त की रोटी मिल जाये यही बड़ी बात है| हमने समाज शायद इसलिए बनाया था ताकि कोई व्यक्ति गलत करे तो उसे रोका जा सके, किसी निर्दोष के साथ अन्याय न हो| क्या समाज आज अपने उद्देश्य को प्राप्त कर रहा है| कम से कम सुलेखा की माँ के मामले में तो नहीं| तो फिर इस समाज का क्या मतलब है? आज समाज का काम सिर्फ बारात जाने, शादी, विवाह में भोज खाने हीं रह गया है| किसी के साथ गलत होने पर कोई कुछ नहीं बोलता| सबको अपने मतलब से मतलब है| समाज के आदर्शों का पतन हो गया है जैसे पेड़ के पत्ते पीले पड जाते हैं| हवा का एक झोंका आएगा और इन पत्तों को बिखेर देगा|

Wednesday, May 26, 2021

कोरोना बीमारी का व्यक्तिगत अनुभव

लूडो के सांप सीढ़ी खेल में एक सांप 99 पर होता है| 1 से 98 तक बचते बचाते गए और 99 वाला सांप आपको डस ले तो कैसा लगता है? बिलकुल वैसा ही मेरे साथ कोरोना को लेकर हुआ| जनवरी 2020 में कोरोना भारत में आया| अन्य लोगों की तरह मैं भी सावधानी वरतने लगा| घर से कम बाहर निकलना, घर से बाहर जाने पर मास्क लगाना, sanitizer का उपयोग करना, लोगों से दूरी बनाना, बाहर से घर आने पर नहाना इत्यादि| मैं स्वास्थ्य के प्रति भी सावधान हो गया| लगभग नियमित व्यायाम करना, अच्छा घर का खाना खाना इत्यादि दैनिक जीवन का हिस्सा हो गए| मार्च 2021 में परिवार के साथ वैष्णो देवी घुमने भी गया| संक्रमण कम होने लगे थे| मार्च में पत्नी बिहार चली गयी| वहां उनका इलाज हो रहा था| उसी के सिलसिले में मुझे भी 20 अप्रैल को घर जाना हुआ| सुरक्षा को देखते हुए हवाई यात्रा की| अगले दिन पत्नी के साथ बिहार शरीफ अस्पताल गया| दिन भर वहां रहना पड़ा| शायद अस्पताल में कोरोना मरीज भी थे| मेरी पत्नी को कोरोना नहीं किसी अन्य बीमारी का इलाज चल रहा था| पुरे दिन N95 मास्क लगाये रखा| उसके बाद घर गया| अगले कुछ दिनों तक ठीक ठाक रहा तो मेरा भरोसा बढ़ गया की यात्रा भी कर ली अस्पताल भी हो आया लेकिन सुरक्षित बचा रहा| 25 मार्च को मेरे बड़े साले साहब का जन्मदिन था| मेरी पत्नी की इच्छा थी की इसबार समीर का जन्मदिन ठीक से मनाया जाये| हमलोग केक और अन्य सामग्री खरीदकर ले गए| रात में मैं धर्मेन्द्र जी और रवि भाई साथ में खाना खाए| अगले दिन यानी 26 अप्रैल को वापस हम ससुराल से अपने घर आ गए| अगले दिन यानी 27 अप्रैल को मुझे शरीर थोडा गर्म महसूस हुआ| थर्मामीटर से देखा तो 99.5 डिग्री था| बुखार हल्का था लेकिन मैंने हलके में लेने का मन नहीं बनाया| शाम को हीं गांव के डॉक्टर से दवाई ले ली| सोचा अगले दिन से और serious इलाज लेंगे| शाम में बुखार बना रहा| अगले दिन सुबह बुखार 100.5 डिग्री था| मैंने धर्मेन्द्र जी से बात की किसी डॉक्टर के लिए लेकिन उन्होंने whatsapp पर दवाई की एक पर्ची दिए जिसे कोरोना मरीजों के लिए किसी बड़े डॉक्टर ने लिखा था| साथ में भाप लेना और गरम पानी पीना जारी रहा| 5 दिन की दवाई लेकर घर आ गया| 28 अप्रैल से दवाई खाने लगा| 5 दिनों का खुराक था| प्रतिदिन दवाई लेने से बुखार उतर जाता लेकिन वापस सुबह शाम में 99 से 100 के आसपास रहता| कभी कभी 101 भी होने लगा| एक दिन 102 डिग्री बुखार भी हुआ| थोड़ी खांसी भी हो रही थी| कमजोरी बहुत हो गया था | कुर्सी पर बैठने से भी चक्कर आने लगते थे| डॉक्टर की सलाह पर 5 दिंनों के बाद दवाई बंद कर दिया| उसके अगले दिन बुखार दिन भर रहा| सीने में जकडन जैसी महसूस होने लगी| साँस लेता तो घर्र घर्र की आवाज आती| ऐसा लगता था की स्वांस नाली में कुछ अटक रहा है| शाम होते होते समस्या ज्याद बढ़ गयी| साँस लेने में तकलीफ होने लगी| उल्टा लेटकर प्रोनिंग position में 3 घंटे रहा| मुझे थोडा होश कम रहने लगा| कुछ सोच समझ नहीं पा रहा था| मेरी पत्नी, बड़ी और मंझली दीदी एवं बड़े जीजाजी मेरे साथ थे| पत्नी ने अपने जीजाजी (नितीश जी) जो डॉक्टर हैं उनको फ़ोन लगाया| नहीं बात होने पर उसने अपने पापा को फोन लगाया| लगभग रोते हुए हाल बताये| वह बिलकुल घबरा गयी थी| अगले दिन सुबह उनसे बात हुई| उन्होंने चल रहे दवाई को अगले 5 दिन और बढ़ाने एवं कुछ और दवाई लेने की सलाह दिए| मैं स्वयं बड़े जीजाजी के साथ बिहार शरीफ जाकर दवाई ले आया| अगले दिन से मुझे रहत मिलनी शुरू हो गयी| बुखार नहीं आया| अगले दिन धर्मेन्द्र जी pulse oxymeter लेकर आये| उसपर देखा तो ऑक्सीजन लेवल 95-97 % तक था| 29 तारीख को कोरोना की जाँच करवाया था उसका रिपोर्ट भी नेगेटिव आया| दो दिन के बाद बुखार की दवाई बंद कर दी| बाकी दवाई 5 दिनों तक ले ली| अब बस कमजोरी रह गयी थी और थोड़ी खांसी| 14-15 दिनों के बाद ऐसा लगा की मैं स्वस्थ हो गया हूँ| 16 मई को वापस चित्तौड़ अपने काम पर लौट आया| इस दौरान मैंने महसूस किया की मेरे जीजाजी और दीदी हमेशा मेरे साथ रहे| उन्होंने हमेशा कहा की कुछ नहीं होगा, मामूली बुखार है तुम ठीक हो जाओगे| हमेशा मेरे कमरे में हीं बैठे रहते | इससे मुझे अकेलापन महसूस नहीं हुआ| पत्नी तो खैर बहुत हिम्मत के साथ लडाई में साथ दी| उन्हें भी खांसी होने लगा| कमजोरी भी महसूस की | डॉक्टर ने कहा की उन्हें भी कोरोना की दवाई लेनी चाहिए| मैंने 3 दिन तक उन्हें भी दवाई दी| वो जल्दी ठीक हो गयीं| कोरोना होने के वावजूद हमेशा मेरे कमरे में हीं रही| स्वयं बीमार होने के वावजूद घर का सारा काम खाना बनाना, साफ़ सफाई सब करती रही| मधुमिता जी हमेशा सुबह शाम फोन करके हाल चल पूछती थी| उनसे बात करके एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था| हिमांशु, गोल्डन, अरविंद जैसे दोस्त whatsapp पर पल पल की खबर लेते रहते| क्या खाया, किस महसूस हो रहा है, स्वाद है की नहीं, गंध आ रही है या नहीं, कमजोरी कितना है वगेरह वगेरह| जल्दी ठीक होने और कमजोरी दूर करने में खान पान का महत्त्व रहा| मैं 1 किलो दूध रोजाना पिने लगा, उसके साथ होर्लिक्स, च्यवनप्राश, काजू, बादाम, अंडे, मछली, मटन सब खाया| पत्नी थोड़ी थोड़ी देर में कुछ न कुछ खाने के लिए लेकर आ जाती| इतना खाया की मेरा वजन 2 किलो बढ़ गया| सभी के सहयोग से मैं ठीक तो हो गया हूँ लेकिन अपनों का प्यार और सहयोग हमेशा याद रहेगा|

Wednesday, April 14, 2021

आज का ज्ञान

कहते हैं दुःख की पराकाष्ठा के बाद सुख का आगमन होता है| लेकिन 2020 के बाद तो 2021 आ गया| टीवी और समाचार पत्रों में कोरोना से दिन प्रतिदिन भयावह होती स्थिति के समाचार भरे पड़े हैं| कहीं अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहा तो कहीं ऑक्सीजन की कमी है| कहीं मृतकों को जलाने के लिए लकड़ी नहीं है तो कहीं श्मशान में घंटों का इन्तेजार है| ट्विटर पर अभी अभी पढ़ा की कवि कुमार विश्वास के परिचित एक व्यक्ति को गुडगाँव में अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा है| महाराष्ट्र के चंद्रपुर में एक बेटा अपने पिता को लेकर दो दिनों से अस्पतालों के चक्कर लगा रहा है लेकिन सभी अस्पताल भरे पड़े हैं| पिता की तड़प बेटे से देखी नहीं जा रही, उसने डॉक्टर से कहा की या तो भर्ती करो या इंजेक्शन देकर मार दो| वर्तमान समस्या के ये मात्र कुछ उदाहरण हैं| शायद ऐसे और भी कई लोग होंगे जो ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं| समस्या बड़ी है और स्थिति अच्छी नहीं है| ये सही बात है की हमने लापरवाही की है और हमें सजा भुगतनी है| एक साल में हमने शायद कुछ नहीं सिखा| लेकिन ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? क्या जीना छोड़ दें? जीने की उम्मीद छोड़ दें? क्या घर से बाहर नहीं निकलें? नौकरी कैसे चलेगी? मन में उथल पुथल मची रहती है| कुछ साथी, दोस्त, रिश्तेदार कोरोना की चपेट में आ गए हैं| कल को हम भी हो सकते हैं| ऐसे में हम अपने आप को इस परिस्थिति के लिए कैसे तैयार करते हैं यह महत्वपूर्ण बात है| ठीक है, समस्याएं हैं तो एक दिन ख़त्म भी होगी| यदि सोचें की 99% से अधिक लोग कोरोना से ठीक हो रहे हैं तो लापरवाही शुरू| यदि सोचें की हम भी इस समस्या में हो सकते हैं तो डर शुरू| डर से हमारे अन्दर भय उत्पन्न होता है जिससे हम ठीक प्रकार से सोच विचार नहीं कर पाते| लापरवाही और डर के बीच संतुलन बनाना कठिन है | तो हम क्या करें? सबसे पहले सोचें की हम इस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं? उत्तर यही है की संक्रमण से बचाव के जितने उपाय हो सकते हैं हमें करना चाहिये, करना ही चाहिए| यदि संक्रमित हो गए हैं तो ठीक होने के लिए जो भी डॉक्टर की सलाह है उसपर अमल करते हुए स्वस्थ होने का प्रयास कर सकते हैं, करना हीं चाहिए| इस दौरान बहुत आवश्यक है की हम अपना मनोबल बनाये रखें और सकारात्मक बने रहें| मुझे साँस लेने में समस्या है इसलिए मास्क नहीं पहन सकते जैसी अनावश्यक दलीलों से बचें| अपने स्वास्थ्य को लेकर जागरूक रहें| ताज़ा और अच्छा खाना खाएं| कुछ समय व्यायाम के लिए जैसे दौड़ना, पैदल चलना इसके लिए निकालें| कल मैंने कहीं देखा की मुंह से बलून फुलाना भी फेफड़े के लिए एक अच्छा व्यायाम है, आसान है, कर सकते हैं| अच्छे और सकारात्मक लोगों के संपर्क में रहें| जिंदगी में कुछ नया करते रहें जैसे मैंने आज ये उपदेशात्मक लेख ही लिख दिया| प्रकृति के सभी जीव जंतुओं में मुस्कुराने का गुण सिर्फ इंसानों में है इसलिए मुस्कुराइए| यह आपका अधिकार भी है और कर्तव्य भी| ज्यादा न सोचें, सावधान रहें और गुनगुनायें: कल खेल में हम हों न हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा|........... जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ| धन्यवाद|

Tuesday, October 6, 2020

शुरूआती नौकरीयों की भाग दौड़

अपने दम पर अपने पैरों पर खड़े होने वाले इंसान की खासियत होती है की उनको मेहनत करने की आदत पड जाती है | कॉलेज से निकलने के दौरान इस बात का एहसास अच्छे से हो गया था की मेरा आगे का रास्ता आसान होने वाला नहीं है | लेकिन हम रास्ते की परवाह करने वाले इंसान भी नहीं हैं | उस समय बस किसी तरह एक नौकरी चाहिए थी सच कहूँ तो एक अदद ठिकाना जहाँ रह सकूँ | किसी तरह बैंगलोर में nanolets software में नौकरी मिली और कंपनी ने मुझे काकीनाड़ा आन्ध्र प्रदेश के लिए सुनील के साथ भेज दिया | बैंगलोर से ट्रेन में बैठते ही सुकून तो आया और नए मंजिल के बारे में सोचकर मन व्याकुल भी होने लगा | काकीनाड़ा रेलवे स्टेशन पर कंपनी की और से मदन जी हमें लेने आये थे | नया राज्य और हमें वहां की भाषा (तेलुगु) बिलकुल नहीं आती थी | सुनील हालाँकि NIT तिरुचिरापल्ली में पढ़ा था लेकिन रहने वाला झारखण्ड का था | भाषा की समस्या उसके साथ भी थी | इसलिए मदन जी का साथ आवश्यक था | मदन जी हमें रेलवे स्टेशन से लेकर बस स्टैंड गए | वहां का बस स्टैंड साफ़ सुथरा था लेकिन सभी बसों में सिर्फ तेलुगु में लिखा था जिसे हम पढ़ नहीं सकते थे | मदन जी वहीँ आन्ध्र प्रदेश के रहने वाले थे | एक बस में बैठकर हमलोग काकीनाड़ा से लगभग 25-30 किलोमीटर दूर एक निर्जन स्थान पर उतरे | वहां एक छोटे से ढाबे पर मदन जी ने हमें इडली और नारियल की सुखी चटनी का नास्ता करवाया | फिर guest हाउस लेकर गए | कंपनी का guest हाउस एक ठीक ठाक बड़ा घर था जिसमे 5 - 7 कमरे और बीच में बड़ा हॉल था | मुझे और सुनील को एक कमरा मिल गया | तो nanolets software का मामला यह था की हमें कंपनी की ओर से घर मिल गया था | उसी घर में कंपनी के 6 - 7 लोग और रहते थे | आंटी जी खाना बना देती थी | कंपनी का एक कॉलेज (काकीनाड़ा इंस्टिट्यूट of इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी) के साथ करार था | हम कंपनी के लोग उसी कॉलेज के कंप्यूटर सेंटर में बैठते और काम करते थे | guest हाउस से कॉलेज लगभग 20-25 किलोमीटर दूर था | रोज नाश्ता करके हमलोग कॉलेज जाते और खाना खाने वापस आते | खाना खाकर पुनः कॉलेज जाते | शाम को लगभग 5 बजे वापस guest हाउस | कंपनी में हमे सरिता जी मेंटर मिली थी | वह हमें रोजाना प्रोग्राम लिखने के लिए देती और हमसब कोडिंग करते रहते | काम ठीक ही समझ में आ रहा था | जैसा सोचा था वैसा ही था | guest हाउस में ढेर सारे कंप्यूटर पड़े थे | कभी कभी रात में भी काम कर लिया करते थे | सबसे बड़ी समस्या खाने की थी | आंटी जी रोज चावल बना देती थी | उन्हें हमारी भाषा आती नहीं थी | सप्ताह में सिर्फ एक दिन रोटी बनता था | मेरा पेट अक्सर ख़राब रहने लगा | मैं दोनों समय सिर्फ चावल नहीं खा सकता था | वहां से लगभग 10 किलोमीटर दूर यानम जगह थी जो pondicherry का एक जिला है | वहां गोदावरी नदी बहती है और बहुत ही खुबसूरत जगह है | हम अक्सर शनिवार या रविवार को छुट्टी के दिन वहां घुमने जाते थे | office के लोगों के साथ हम एक दो बार फिल्म देखने भी गए लेकिन वहां सिर्फ तेलुगु फिल्म लगती थी वो भी तेलुगु भाषा में | फिल्म में हसी का सीन आने पर सभी हंसते और हम बेवकूफ जैसे उनको देखते थे | कंपनी की या कॉलेज की एक गाड़ी हमें guest हाउस से ले जाती और लाती थी | खाने पिने को छोड़कर बाकी सभी ठीक ठाक था | मदन जी ने एक महीने के बाद मेरी पहली आमदनी 5000 रूपये भी दिए | उस समय मेरी आँखों में आंशु आ गए थे | कॉलेज से निकलने के बाद से अभी तक मैंने लगभग इतने रूपये ही खर्च किये थे | मतलब शुरू में जो 20 हजार मेरे पास था अब उतना वापस हो गया था | अब मैं आगे बढ़ने के लिए तैयार था | 2 से 3 महीनों के बाद ही समस्या शुरू हो गयी | एक ओर तो खाने की समस्या दूसरी ओर कंपनी में कुछ दिक्कत होने लगी | हमें कुछ ज्यादा तो नहीं पता चला लेकिन ऐसा लगा की कुछ गड़बड़ तो है | हमें guest हाउस छोड़कर काकीनाड़ा शहर में हीं एक दूसरा घर दे दिया गया | कुछ दिन बाद हमलोग कॉलेज नहीं जाने लगे और घर से ही काम करने लगे | काकीनाड़ा आने से एक अच्छी चीज हुई थी की अब मैं बैंगलोर या चेन्नई आसानी से जा सकता था | मैंने चेन्नई में medi analytika india pvt ltd कंपनी में बात की | कॉलेज के दौरान एक बार वहां मैं interview के लिए गया था तो मुझे कहा गया था की पहले कॉलेज ख़त्म कर लो | अब मेरा कॉलेज ख़त्म हो गया था | मैंने एक शनिवार को चेन्नई जाकर interview देने का निश्चय किया | interview दिया और मेरा सिलेक्शन हो गया | मुझे लगभग 7 दिन चेन्नई में ट्रेनिंग लेनी थी उसके बाद मुझे delhi में पोस्टिंग मिली थी | दिल्ली आना मेरे लिए लाटरी से कम नहीं था | चेन्नई में एक होटल में मैंने रूम लिया | काकीनाड़ा में मैंने कुछ बताया नहीं था | वहां कोई पूछने वाला भी नहीं था | सुनील भी कहीं और कोशिश कर रहा था या शायद घर चला गया था | चेन्नई में medi analytika कंपनी बायो मेडिकल सामानों की बिक्री और मरम्मत का काम करती है | चेन्नई में रेलवे स्टेशन के पास होटल में मैंने एक कमरा लिया था | पास में ही एक पंजाबी ढाबा था जहाँ मुझे खाना मिल जाता था | adyar में office था जहाँ मैं ज्यादातर लोकल ट्रेन से जाता था | थोड़ी दुरी पैदल चल लेता था | रोजाना शाम को मरीना बिच पर कंपनी के ही एक दोस्त के साथ मैं अक्सर बैठा रहता | उस दोस्त को हिंदी नहीं आती थी | हमलोग अंग्रेजी में ही बात करते थे इससे हमारी अंग्रेजी ठीक होने लगी थी | चेन्नई में ट्रेनिंग ख़त्म हो गयी और मुझे दिल्ली आनी थी | उस दौरान nanolets software से सरिता जी का फ़ोन आया | मैंने उनसे बात तक नहीं की | सुनील ने बताया की वो भी वापस नहीं गया है और लोग सोच रहे हैं की हमलोग कहाँ गए | काकीनाड़ा में मेरा ट्राली बैग रह गया था जिसमे कुछ कपड़े, एक जोड़ी जूता और कुछ किताबें थी | मैं ट्राली लाने भी वहां नहीं गया | शायद ट्रेन का किराया मेरे सामान की कीमत से ज्यादा लगा | दिल्ली में medi analytika कंपनी की ओर से दो कमरे के एक घर था | उमसे मेरे साथ कंपनी का ही एक और साथी आया था | हमलोग मुनिरका में रहते थे | दिल्ली में ही मेरे भैया का भी पोस्टिंग थी | वो खजुरी खास में रहते थे | दिल्ली में मेरा मित्र बादल भी रहता था जिसका मोबाइल का दुकान था | बादल मेरा स्कूल का मित्र था | दिल्ली में आकर मुझे काफी रहत मिली | कंपनी का काम मुश्किल नहीं था | मुझे चेन्नई से फ़ोन आता था की फलां जगह मशीन ख़राब है | मुझे वहां जाकर मशीन ठीक करना होता था | इस दौरान एम्स, jnu, दिल्ली university, चंडीगढ़, iit दिल्ली, iit कानपूर जैसे जगहों पर जाना हुआ | कभी कभी चेन्नई से हमारे सीनियर भी आते थे | जल्दी ही कंपनी का वो दोस्त भाषा की समस्या की वजह से वापस चेन्नई चला गया | मैं कंपनी के फ्लैट में अकेले रह गया | उस समय मुझे महीने का लगभग 7 हजार मिलता था | यात्रा करने के लिए कंपनी से मुझे पैसे मिल जाते थे | दिल्ली के अनुसार इतना पैसा मुझे कम पड़ने लगा था | वही मैं अपने कुछ और दोस्तों से भी मिला | दिल्ली में खर्चे का बहुत रास्ता था कुछ गलत संगती में गलत रास्ते पर भी गया | अधिकांश जगह पर मैंने मशीन को ठीक किया था इससे कंपनी वाले खुश थे | पैसे समय पर मिल जाते थे | एक समस्या जो मुझे समझ में आने लगी वो यह की मुझे बहुत अधिक यात्रा करना पड़ता था | जैसे एक रात को iit कानपूर जाना और दुसरे दिन वहां एक मशीन ठीक करना फिर उसी रात वहां से दिल्ली होते हुए अगले दिन चंडीगढ़ जाना | रिजर्वेशन कभी कभी नहीं भी मिलते थे तो दिक्कत होती थी | कंपनी तो मुझे 3 AC की सुविधा देती थी लेकीन रिजर्वेशन नहीं मिलने के कारण जनरल में भी यात्रा करनी पड़ती थी | दिल्ली एम्स में बायोमैट्रिक्स मशीन और दिल्ली university में फिश टैंक बनाना याद रहेगा | यहाँ दिल्ली में कुछ दिनों में मैं थोडा स्थिर और सहज हो गया | एक बार मैं अपने एक रिश्तेदार से थोड़े पैसे उधार माँगा तो उन्होंने कहा की क्या तुम इतने पैसे भी नहीं कमाते हो | यह बात मुझे अन्दर तक चुभ गयी | हालाँकि उसके बाद मैं थोडा संभलने लगा | पैसों के प्रति मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही थी | लेकिन लगा की थोडा पैसा तो होना चाहिए | इसी दौरान एक दोस्त के साथ मैं कभी कभी interview देने चला जाता था | उस दोस्त को नौकरी की जरुरत थी और मैं भी सोचता था की कोई और बढ़िया नौकरी मिल जाये तो ठीक है | इसी चक्कर में एक दिन IBM गुडगाँव में interview दिया | इत्तेफाक से मेरा सिलेक्शन हो गया | मुझे IBM गुडगाँव में जोइनिंग मिली और नॉएडा 64 में ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया | यहाँ मैं CCE कस्टमर केयर executive के पद पर था | सैलरी कुल मिलाकर लगभग 14 हजार| यहाँ मुझे पता चला की एयरटेल अपने कस्टमर केयर सेंटर में जो कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं उसका देखभाल IBM करता है | हमें एयरटेल के कस्टमर केयर सेंटर से फ़ोन आते और हमें उनके समस्या का समाधान करना होता | हार्डवेयर तो ठीक करना आसान था लेकिन software के लिए कुछ निर्धारित उत्तर थे जिसे रटना था | यहाँ मैं बता दूँ की चेन्नई की कंपनी से सच नहीं बताया था | वहां मैंने कहा था की मैं कुछ समय के लिए घर जा रहा हूँ | IBM मुझे घर से आने जाने के लिए कैब की व्यवस्था की थी | हम 5 - 6 लोग एक कैब में आते जाते थे | मैं मुनिरका के पुराने कंपनी के घर में ही रह रहा था | सुबह 7 बजे मुझे तैयार होकर कैब पकड़ना होता तो रात को लगभग 8 बजे मैं वापस आ पाता | खाना पीना ठीक से नहीं हो रहा था | दिन में पराठे या छोले कुलचे खा लेता | रात में उस दोस्त के साथ अक्सर खाना खा लेता | इस तरह से एक सप्ताह बिता और मेरा मन भर गया | IBM का वातावरण मुझे रास नहीं आया | AC में बंद रहना, रट्टा मारना, इंसान से ज्यादा हम मशीन लगने लगे थे | एक सप्ताह में मैंने IBM जाना छोड़ दिया | चेन्नई की कंपनी को मैंने रिपोर्ट किया की मैं वापस आ गया हूँ | एक दो जगह फिर मशीन ठीक कर दिया | मैं दोराहे पर खड़ा था | किस कंपनी में आगे बढूँ कहाँ नहीं जाऊ | मेरी भाभी ने सुझाव दिया की मुझे IBM में जाना चाहिए | एक सप्ताह चेन्नई की कंपनी में काम करने के बाद मैं अपने दोस्त बादल के साथ फिर IBM गया | वहां 3 स्तर की सिक्यूरिटी के बाद हमें प्रवेश मिलता था | मैनेजर ने मुझे डांटा भी और दुबारा ऐसा नहीं करने की शर्त पर मुझे वापस ले लिया | मुझे बताया गया था की यदि बिना बताये छोड़े तो IBM मुझे ब्लैकलिस्ट कर देगा और दुबारा कभी इसमें नौकरी नहीं मिलेगी | एक सप्ताह फिर मैं IBM में काम किया | यहाँ मेरा दम घुटता था | मैंने IBM छोड़ने का निर्णय लिया | ब्लैकलिस्ट होने की परवाह किये बिना मैंने बिना बताये अगले सप्ताह से जाना बंद कर दिया | फिर वही चेन्नई वाली medi analytika में काम चलता रहा | यहाँ मुझे यह भी डर लगता था की मैं चेन्नई वाली कंपनी के घर में रहकर IBM में काम करता हूँ | medi analytika के यात्रा वाले काम से मैं परेशान था कोई ऐसा काम ढूंढ रहा था जहाँ एक जगह बैठकर काम हो | संयोग से मुझे अलवर, राजस्थान के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाने के लिए लेक्चरर बनने का मौका मिला | मैं इसी तरह के काम करना चाहता था | पढ़ाना मेरा पसंदीदा काम है | अलवर जाकर interview दिया और मेरा सिलेक्शन हो गया | बस दिल्ली छोड़कर मैं अलवर आ गया | अलवर में कॉलेज के अन्दर ही मुझे रहने के लिए एक कमरा मिल गया और खाने के लिए मेस में सुविधा थी | खाने रहने का इन्तेजाम हो गया और कुछ पैसे भी मिल जाते थे | बस मैं खुश था | अलवर में पढाना मुझे ठीक लग रहा था | इसके बाद मैं जयादा नौकरी के चक्कर में पड़ा नहीं | एक आध बार सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म भरा लेकिन परीक्षा देने गया नहीं | दो साल लगभग मैं अलवर में पढाया | हर तरह के अच्छे बुरे दौर से गुजरा लेकिन जिंदगी लगभग स्थिर रही | सुकून के पल थे | काम का बोझ या दवाब भी नहीं था | लेकिन कॉलेज से बायो मेडिकल ब्रांच जिसमे मैं पढाता था उसमे प्रवेश बंद हो गया था | यानी की मुझे एक दो साल में दूसरी नौकरी ढूंढनी थी | तब मैंने थोड़ी तैयारी की एक एक साथ तीन जगह फॉर्म भरा | बैंक of बरोदा में P. O. , manager के लिए, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय में बायो मेडिकल इंजिनियर के लिए और अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में फ़ेलोशिप के लिए | शुरू के दोनों जगह मेरा लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण के बाद interview में सिलेक्शन नहीं हुआ और मैंने अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में नौकरी ज्वाइन कर ली | यहाँ मुझे लगभग 9 वर्ष हो गए हैं | इस दौरान रेलवे की परीक्षा भी दिया लेकिन mains में नहीं हुआ | मैंने मान लिया है की मेरी किस्मत में सरकारी नौकरी नहीं है | कोई विशेष मलाल तो नहीं है | अब कुछ अपने दम पर करना चाहता हूँ और जल्दी ही करूँगा | नौकरी की तलाश और भाग दौड़ अब छोड़ दी है | हाँ कभी कभी इधर उधर कोशिश करना जारी रखा है क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं है कब आपको अपनी काबिलियत दिखाने की जरुरत पद जाये | लेकिन जीवन में एक ठहराव और शांति है | खाने को दो रोटी, सुकून की नींद, किराये का हीं सही एक छत है बस मुझे ज्यादा की कभी इच्छा रही नहीं | लेकिन अब घर जाने का मन होता है | बचपन से हीं अपने गाँव से बाहर रहा हूँ | सिख ये मिली की नौकरी जरूरी तो है लेकिन सबकुछ नहीं है | हम यदि परिवार और दोस्तों का साथ सहयोग लेते रहे तो खाने पीने लायक तो कमाया जा सकता है | एक और सीख जो मिली वो है अपनी कमजोरी पर विजय पाना | थोड़े पैसे जमा कर रहा हूँ यही समय पर काम आयेंगे | बाकी सब ऊपर वाले के हाथ में हैं |

Sunday, October 4, 2020

कॉलेज के वो आखिरी दिन

कॉलेज के दिन दोस्ती, मस्ती, पढाई और आनंद का होता है | इंजीनियरिंग के चार साल ऐसे ही बीते | जून 2009 में मेरा कॉलेज ख़त्म होने वाला था | आखिरी दिन का निर्धारण अंतिम वर्ष के प्रोजेक्ट कार्य का मौखिक से होना तय था | मेरे अधिकांश दोस्तों का किसी न किसी कम्पनी में नौकरी लग चुकी थी | जिनका नंबर मुझसे कम था उन्हें भी नौकरी लग चुकी थी | मुझे लगभग 7.5 / 10.0 (CGPA) नंबर मिले थे लेकिन नौकरी नहीं मिली | कक्षा 12 के बाद 4 साल का गैप काबीलियत पर भारी पड़ रहा था | कॉलेज के आखिरी दिनों में किसी से मिलने का मन नहीं होता था | जो भी मिलता नौकरी के बारे में हीं पूछता | हर दोस्त का किसी न किसी कंपनी में नौकरी लगी थी और मैं उन सबसे नजरें चुराने लगा | फोटो session के दौरान मैं वहां जाना उचित नहीं समझा | ऐसा लगता था हर कोई पूछ रहा है अब क्या करोगे ? कहाँ जाओगे ? क्या नौकरी नहीं लगी | आये दिन दोस्तों के नौकरी लगने और कॉलेज ख़त्म होने की पार्टी हो रही थी | लेकिन मुझे नौकरी लगी नहीं थी और कॉलेज ख़त्म होने की मुझे ख़ुशी थी नहीं | मम्मी पापा को मैंने कॉलेज के दौरान ही खो दिया था | घर में कुछ था नहीं | इंजीनियरिंग करके खाली घर में वापस आना लगभग असंभव जैसा काम था | एक दिन मैंने भी ब्लू वाटर पब की पार्टी में दारू पी ली | मैं ख़ुशी में नहीं बल्कि अपना दुःख भुलाने के लिए पिया था | मेरे पास लगभग 20 हजार रूपये थे और यही मेरी कुल जमा पूंजी थी | मैंने तय किया था की इतने पैसे से कुछ करना है वरना क्या होगा कुछ पता नहीं | जिंदगी में आगे बढ़ने का बहुत कुछ समझ में आ नहीं रहा था | कोई न समझाने वाला था न सुनने वाला | परिवार से दुरी बढ़ गयी थी दोस्त सभी एक एक करके कॉलेज से जा रहे थे | ऐसा लगता था की जिंदगी यहाँ आकर अचानक रुक गयी है | मुझे अपनी समस्या का अहसास था इसलिए कुछ समय पहले से बैंगलोर और चेन्नई में कोशिश करने लगा था | इंजीनियरिंग के बाद या तो कॉलेज से नौकरी मिलने वाले थे या कॉलेज के बाहर कंपनी में सीधे जाकर | कुछ कंपनियों ने कहा था की कॉलेज डिग्री पहले पूरी करो फिर देखेंगे | कॉलेज में तो नौकरी मिली नहीं थी बाहर दुनियाँ बहुत बड़ी थी | कहाँ जायें क्या करें अजीब सा उहापोह था | कॉलेज के हॉस्टल के 10 ब्लॉक में मैं रहता था कमरा संख्या 1147 में | जिस दिन प्रोजेक्ट कार्य का मौखिक हो गया उस दिन के बाद तो मेस में खाना भी नहीं खाया जा रहा था | आधे अधूरे मन से no due की fomrality कुछ कुछ किया जैसे लाइब्रेरी में और फिर छोड़ दिया | जिस कॉलेज में मैंने 4 साल बिताये थे वहीँ ऐसा लग रहा था की मैं बिन बुलाये मेहमान हूँ | हर आंख मेरी ओर हीं घूरती सी लगती थी | ऐसा लगता था की हर व्यक्ति पूछ रहा है की यहाँ क्यों हो | उसी दौरान मैंने बैंगलोर की एक सॉफ्टवेर की कंपनी nanolets software में walkin के लिए जाना तय किया | walkin interview एक तरह से भीड़ होती है जिसमे सैकड़ों लोग 2 - 4 पोस्ट के लिए संघर्ष करते हैं | मैं मणिपाल से एक बैग लेकर बैंगलोर interview के लिए निकल पड़ा | मुझे हॉस्टल खाली करना चाहिए था लेकिन बिना किसी अन्य ठिकाने के कैसे खाली करता | मणिपाल से रात भर की बस की यात्रा करके बैंगलोर में अपने एक रिश्तेदार के यहाँ गया | सुबह फ्रेश होकर मैं interview के लिए ऑटो लेकर गया | वहां काफी भीड़ थी | एक लिखित परीक्षा हुई | फिर कुछ देर का ब्रेक मिला | शाम को कुछ लोगों को interview के लिए बुलाया गया | मेरा interview का समय लगभग 4 बजे का था | interview लगभग 5 बजे तक सभी का ख़त्म हुआ और बताया की आप लोगों का रिजल्ट मेल पर भेज दिया जायेगा | जो लोग सफल होंगे सिर्फ उन्ही को शाम को 8 बजे तक मेल आना था | मैं वहां से अपने रिश्तेदार के यहाँ रूम पर वापस आने के लिए बस लिया | पैसे बचाना उस समय का सबसे बड़ा उद्देश्य था | वापसी में रिश्तेदार के रूम पर जाने से पहले मैं बस से उतरकर एक साइबर कैफ़े में रिजल्ट देखना चाहता था | उस समय इन्टरनेट के लिए सायबर कैफ़े ही एकमात्र बिकल्प था | फ़ोन पर इन्टरनेट नहीं होता था | शाम को 7 बजे थे | एक घंटा इधर उधर घुमा फिर 8 बजते ही सायबर कैफ़े में जाकर रिजल्ट देखा | मुझे सफल घोषित किया गया था | अगले दिन से 9 बजे मुझे जाना था | मैं अब रिश्तेदार के रूम पर थोडा मन में संतोष के साथ गया | वास्तव में ये रिश्तेदार अपने कुछ दोस्तों के साथ रहते थे | सभी लोग मणिपाल में हीं पढ़े थे और हमसे एक साल सीनियर थे | सभी अच्छी कंपनियों में नौकरी कर रहे थे | एक रूम एक था और एक हॉल था जिसमे तीन लोग रहते थे | एक रूम में रहते थे और दो लोग हॉल में | मैं भी उनके साथ हॉल में हीं सोने लगा | एक व्यक्ति खाना बनाने आता था | मेरी कंपनी थोड़ी दूर थी और मुझे बस से जाना होता था तो मैं सुबह जल्दी बिना कुछ खाए पिए हीं निकल जाता था | सुबह लगभग 7 बजे निकलता था और शाम को लगभग 7:30 से 8:00 बजे के आसपास पहुँचता था | दोपहर में कुछ हल्का खा लेता और रात में सबके साथ ठीक ठाक खाना मिल जाता था | मेरी कुछ आमदनी तो थी नहीं इसलिए घर के राशन में मेरा योगदान नहीं था |पैसे बचाने के लिए मैं अक्सर दोपहर में खाना नहीं खाता था | चाय समोसे या पकोड़े से किसी तरह पेट भर लेता था | तीन चार दिन ऐसे ही चलता रहा | एक दिन (शुक्रवार को) मुझे office में बुलाकर बताया गया की मुझे रविवार को सुनील के साथ काकीनाड़ा, आंध्र प्रदेश जाना है | मेरा फाइनल सिलेक्शन हो गया था | दोहपर में office के बाहर दोस्तों से पता चला की हम 11 लोग ट्रेनिंग कर रहे थे उसमें से सिर्फ 2 लोगों का फाइनल सिलेक्शन होना था | एक सुनील का नाम था और एक किसी और साथी का | उस साथी का अचानक किसी और कंपनी में सिलेक्शन हो गया था इसलिए उसके स्थान पर मुझे सेलेक्ट किया गया था | बैंगलोर से काकीनाड़ा के लिए ट्रेन सुबह 8:30 बजे की थी | सुनील ने मुझे ट्रेन का नाम, नंबर और रिजर्वेशन का सीट नंबर बता दिया था | टिकेट भी सुनील और उस साथी के नाम से था | मुझे लम्बे समय के लिए काकीनाड़ा जाना था जहाँ nanolets software का काम होता था | मुझे अब मणिपाल में अपना रूम खाली करना था | मैं अपने रिश्तेदार के घर गया | सामान पैक किया और मणिपाल के लिए रात में बस पकड़ लिया | मैंने थोड़ी कामयाबी पा ली थी | अब मेरे पास किसी तरह एक नौकरी थी | रहने का एक ठिकाना जो लगभग तय था | मैं शनिवार सुबह मणिपाल गया तो सबकुछ अजीब लग रहा था | कॉलेज अब मेरा नहीं लग रहा था | किसी तरह रूम का सामान जिसमे मुख्य रूप से एक कंप्यूटर और एक ट्रोली बैग था | कंप्यूटर एक दोस्त को दिया और बताया की बाद में मेरे भैया के पास रांची कूरियर कर दे | मणिपाल से उसी शाम को बैंगलोर के लिए बस लिया | रविवार को सुबह बस मुझे 6 बजे के आसपास बैंगलोर पहुँचाने वाली थी और वहां से ट्रेन पकड़ना था | जो लोग बैंगलोर गए हैं उनको पता होगा की वहां majestik बस स्टैंड रेलवे स्टेशन के पास ही है | जून में वहां बारिश बहुत होती है और बस थोड़ी लेट हो गयी | बस लगभग 8 बजे बैंगलोर शहर पहुंची | ड्राईवर ने बताया की 8 बजे के बाद शहर में प्राइवेट बस की एंट्री नहीं होगी | इसलिए मुझे कुछ दूर ऑटो से जाना था | लगभग 8 - 9 किलोमीटर की दुरी और ऑटो का सफ़र | सोचने का ज्यादा समय था नहीं | ऑटो लेकर रेलवे स्टेशन पहुंचा | समय लगभग 8:30 हो चुकी थी | मेरी ट्रेन 4 नंबर प्लेटफार्म से खुल रही थी | भागते हुए प्लेटफार्म नंबर 4 पर पहुंचा तो देखा ट्रेन धीरे धीरे चलने लगी थी | भागकर मैं भी ट्रेन पकड़ लिया | थोड़ी राहत की साँस ली और सुनील को ढूंढा | पहली बार रिजर्वेशन से यात्रा करने वाला था | एक नयी मंजिल की ओर | कॉलेज के दिन ख़त्म हो गए थे | एक नयी दुनिया थी जिसे देखना था | जानपहचान की दुनिया से दूर एक अंजान राह पर | ट्रेन बैंगलोर शहर से बाहर निकल चुकी थी |

Wednesday, August 19, 2020

चूल्हे के लिए आग लेने देने की परंपरा

हमारे गाँव में आज से लगभग 25-30 वर्ष पहले तक आग लेने देने की बहुत हीं अच्छी परंपरा थी | भोजन बनाने हेतु चूल्हे में लकड़ी, फसलों के अवशेष और गोबर के उपलों का उपयोग होता था | मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन उस समय दियासलाई जिसे माचिस भी कहते हैं को बहुत मूल्यवान वस्तु समझा जाता था | शायद महंगा रहा होगा | अक्सर घरों में होते नहीं थे या होते थे तो पूजा पाठ के लिए काम आते थे | लेकिन महिलाओं ने अपने चूल्हे जलाने के लिए एक रोचक परंपरा का विकास कर लिया था | आस पड़ोस के किसी भी घर में जहाँ चूल्हा जल रहा हो वहां से आग लेने का | सामान्यतः महिलाएं 4-5 उपले लेकर जाती थी और उनमे से 1-2 उपलों को आग वाले चूल्हे में डाल देती थी | थोड़ी देर में उपला आग पकड़ लेता था | फिर बाकी उपलों की सहायता से आग वाले उपले को अपने चूल्हे में डाल देती थी | इससे उनके घर का चूल्हा जल जाता था | कभी कभी माँ व्यस्त रहती तो मुझे आग लेने जाना पड़ता था | इस कार्य के दौरान जो प्रक्रिया होती थी वह बहुत हीं महत्वपूर्ण थी | आस पड़ोस की महिलाओं को आपस में मिलने जुलने और बातचीत करने का मौका मिल जाता था | एक दुसरे का हाल चाल पूछ लेती थी | थोड़ी बहु की शिकायत कर ली थोडा अपना दुखड़ा सुनाया | इससे उनका मन हल्का हो जाता था | जिनके यहाँ से आग लेते थे उनका अहसानमंद भी होते थे | इससे यह भी होता था की किसके घर क्या खाना बन रहा है यह आपस में सबको पता चल जाता था | कोई महिला आग नहीं लेने आई तो लोग पूछते थे सब ठीक तो है ? खाना बनाया की नहीं ? इत्यादि | किसी के घर खाना नहीं बना है तो पड़ोस से मदद मिल जाती थी | गरीबी ज्यादा थी और गाँव के लोगों से हालात छुपे नहीं थे | रोटी या चावल के साथ गाँव में उपजने वाली सब्जी ही घरों में बनती थी | अक्सर हमारे घर की सब्जी पड़ोस में चली जाती और पड़ोस से सब्जी हमारे घर आ जाती | हमारे बेटे को ये सब्जी पसंद है थोड़ी भेज दीजियेगा | एक दुसरे का ख्याल रखने का ये सामाजिक ताना बाना भी कमाल का था | एक अदद माचिस ने सब छीन लिया |

Thursday, March 26, 2020

कोरोना के डर के बीच का जीवन


पूरी दुनिया को कोरोना नामक बीमारी ने अपने कब्जे में कर लिया है | दिनों दिन इससे मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है | अभी तक इसका कोई ईलाज उपलब्ध नहीं है | इससे बचाव ही बेहतर उपाय है | इसको ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 21 दिनों के लॉक डाउन की घोसणा की है | ट्रेन बस हवाई जहाज सभी बंद हैं | पुरी दुनिया से आ रही मौत की खबरों से एक अजीब सा डर पैदा होता जा रहा है | इटली, स्पेन, अमेरिका जैसे बड़े बड़े देश इसकी चपेट में बुरी तरह से आ गए हैं | रोजाना लगभग 2000 लोग मारे जा रहे हैं | इस बीमारी के बारे में ज्यादा कुछ पता भी नहीं है | एक इंसान से दुसरे इंसान में फैलता है | और यह बड़ी ही तेजी से फैलता है | इलाज करने वाले डॉक्टर्स और नर्सेज भी इसकी चपेट में आ रहे हैं | घर से निकलना तो पिछले कई दिनों से बंद है | किसी भी सामान को छूने में डर लगता है | रोजाना घर परिवार वालों और दोस्तों से बात होती है तो थोडी राहत मिलती है | छींकने खांसने पर डर लगता है | जीवन पूरी तरह से एक घर में एक कमरे में कैद हो गया है | खाना कम खाते हैं थोडा योग करके स्वस्थ रहने की कोशिश कर रहे हैं | उम्मीद है यह तूफान गुजर जायेगा और जिंदगी वापस पटरी पर लौटेगी | अभी तक मैं काम और नौकरी के बारे में सोचता रहा | पैसा कमाया और पैसे को जिंदगी के लिए जरूरी समझता रहा | अब लगता है पैसा जिंदगी के लिए उतना जरूरी नहीं है जितना मैं सोचता था | पता नहीं इस महामारी के बाद की दुनिया कैसी होगी | मेरा दुनिया से मोह भंग होता जा रहा है | मन करता है की किसी एकांत में जाकर जरूरतमंद लोगों की थोड़ी सेवा कर लूँ | मन चंचल होता जा रहा है | शकुन अपशकुन के बीच डोलता रहता है | जिंदगी इतनी मजबूर कर देगी कभी सोचा नहीं था | बस ये तूफ़ान गुजर जाये |